फ्रांस का ऐतिहासिक फैसला: फिलिस्तीन को देगा देश की मान्यता
फ्रांस का ऐतिहासिक कदम: फ़िलिस्तीन को मान्यता देने वाला पहला G7 देश बना
सितंबर 2025 में फ्रांस ने एक ऐसा ऐतिहासिक फैसला लिया, जिसकी गूंज अंतरराष्ट्रीय मंच पर लंबे समय तक सुनाई देगी। राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने आधिकारिक रूप से घोषणा की कि फ्रांस अब फ़िलिस्तीन को एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र के रूप में मान्यता देगा। यह फैसला फ्रांस को ऐसा करने वाला पहला G7 देश बना देता है, और साथ ही यह इज़राइल-फ़िलिस्तीन संघर्ष को लेकर यूरोप के रुख में एक स्पष्ट बदलाव का संकेत देता है।
यह निर्णय ऐसे समय पर आया है जब ग़ाज़ा पट्टी में हिंसा चरम पर है, हजारों लोगों की जान जा चुकी है, और मानवीय संकट लगातार गहराता जा रहा है। फ्रांस की यह पहल शांति के रास्ते की ओर एक नई उम्मीद के रूप में देखी जा रही है।
संघर्ष की पृष्ठभूमि
इज़राइल-फ़िलिस्तीन विवाद बीते सात दशकों से चला आ रहा है, जिसकी जड़ें भूमि विवाद, धार्मिक मान्यता और ऐतिहासिक असहमति में हैं। वर्ष 1988 में फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन (PLO) ने एकतरफा तौर पर स्वतंत्र फिलिस्तीनी राज्य की घोषणा की थी। इसके बाद से अब तक 140 से अधिक संयुक्त राष्ट्र सदस्य देशों ने फ़िलिस्तीन को मान्यता दी है।
हालांकि अमेरिका, ब्रिटेन, जापान और अन्य G7 देशों ने अब तक इस दिशा में कोई औपचारिक कदम नहीं उठाया है। इन देशों का तर्क रहा है कि जब तक इज़राइल और फ़िलिस्तीन के बीच कोई ठोस शांति समझौता नहीं होता, तब तक मान्यता देना उचित नहीं होगा।
फ्रांस का यह निर्णय क्यों महत्वपूर्ण है?
फ्रांस का यह फैसला केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि रणनीतिक भी है। चूंकि फ्रांस संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है, उसकी ओर से फ़िलिस्तीन को मान्यता देना एक शक्तिशाली कूटनीतिक संकेत है।
यह निर्णय तीन प्रमुख कारणों से महत्वपूर्ण माना जा रहा है:
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ग़ाज़ा में बढ़ते मानवीय संकट के प्रति वैश्विक संवेदनशीलता का संकेत।
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यूरोपीय असंतोष जो दो-राष्ट्र समाधान की दिशा में ठोस प्रगति न होने के कारण बढ़ा है।
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पश्चिमी नीति में बदलाव की शुरुआत, जो अन्य देशों को भी फ़िलिस्तीन को मान्यता देने के लिए प्रेरित कर सकता है।
राष्ट्रपति मैक्रों की प्राथमिकताएँ
राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने इस पहल के पीछे अपने इरादों को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया है। उनके अनुसार, इस मान्यता के पीछे कुछ मुख्य उद्देश्य हैं:
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ग़ाज़ा में तत्काल युद्धविराम का समर्थन।
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हम्मास का निरस्त्रीकरण और चरमपंथी तत्वों पर लगाम।
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ग़ाज़ा के बुनियादी ढांचे का पुनर्निर्माण।
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ऐसा फ़िलिस्तीनी राष्ट्र बनाना जो इज़राइल के अस्तित्व के अधिकार को स्वीकार करे और क्षेत्रीय स्थिरता में योगदान दे।
यह रुख यह दर्शाता है कि फ्रांस सिर्फ़ राजनीतिक बयानबाज़ी नहीं, बल्कि समाधान की दिशा में ठोस क़दम उठाना चाहता है।
अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाएँ
फ्रांस के इस निर्णय पर दुनिया भर से मिली-जुली प्रतिक्रियाएँ आई हैं:
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फ़िलिस्तीनी प्राधिकरण ने इस निर्णय का गर्मजोशी से स्वागत करते हुए कहा कि यह “अंतरराष्ट्रीय न्याय और कानून के अनुरूप” है।
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इज़राइल ने तीखी आलोचना करते हुए इसे “आतंक को इनाम देने” जैसा करार दिया, विशेषकर अक्टूबर 2023 के हमास हमलों की पृष्ठभूमि में।
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अमेरिका ने इसे “ग़ैर-जिम्मेदाराना” और “पूर्वाग्रहपूर्ण” कहा।
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सऊदी अरब और 100 से अधिक वैश्विक संगठनों ने फ्रांस के रुख की प्रशंसा की।
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ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कीयर स्टारमर ने कहा कि युद्धविराम के बाद फ़िलिस्तीन को मान्यता देने पर वे भी विचार कर सकते हैं।
आगे की राह और चुनौतियाँ
हालांकि यह कदम ऐतिहासिक है, लेकिन यह संघर्ष की जड़ों तक नहीं पहुंचता। कुछ मूलभूत चुनौतियाँ अब भी बनी हुई हैं:
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यरुशलम की स्थिति और सीमाओं को लेकर विवाद अब भी अनसुलझा है।
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इज़राइल की राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताएँ बनी हुई हैं।
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फ़िलिस्तीनी नेतृत्व का विभाजन – एक तरफ है फ़िलिस्तीनी अथॉरिटी, दूसरी ओर हमास, जिनके बीच अक्सर टकराव रहता है।
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अमेरिका का विरोध इस पहल को व्यापक पश्चिमी समर्थन मिलने में बाधा बन सकता है।
निष्कर्ष
फ्रांस का यह फैसला केवल एक औपचारिक मान्यता नहीं, बल्कि एक संदेश है – कि वैश्विक व्यवस्था अब बदलाव की ओर बढ़ रही है, जहां न्याय, समानता और स्थायी समाधान को प्राथमिकता दी जा रही है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि अन्य G7 राष्ट्र और यूरोपीय देश इस रुख से कैसे प्रेरित होते हैं।
यदि यह पहल व्यापक समर्थन जुटा पाती है, तो यह इज़राइल-फ़िलिस्तीन विवाद को हल करने की दिशा में एक निर्णायक मोड़ बन सकती है।
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