राष्ट्रीय सहकारिता नीति 2025: आत्मनिर्भर भारत की ओर एक मजबूत कदम
चर्चा में क्यों?
संयुक्त राष्ट्र द्वारा वर्ष 2025 को ‘अंतर्राष्ट्रीय सहकारिता वर्ष (International Year of Cooperatives – IYC)’ घोषित करने के उपलक्ष्य में, भारत सरकार ने राष्ट्रीय सहकारिता नीति 2025 का अनावरण किया है। इस नीति का उद्देश्य है — देश के सहकारिता क्षेत्र को जन-आधारित आर्थिक शक्ति में परिवर्तित करना, जिससे यह ग्रामीण विकास, रोजगार सृजन और आत्मनिर्भरता का प्रमुख स्तंभ बन सके।
अंतर्राष्ट्रीय सहकारिता वर्ष (IYC) 2025: वैश्विक स्तर पर सहकारिता की भूमिका
IYC 2025: क्यों है खास?
अंतर्राष्ट्रीय सहकारिता वर्ष 2025 (International Year of Cooperatives – IYC) को संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित किया गया है, जिसका उद्देश्य वैश्विक सहकारी आंदोलन की भूमिका को उजागर करना है — विशेष रूप से समावेशी विकास, सतत भविष्य और संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों (SDGs 2030) की प्राप्ति में।
सहकारिता दिवस का इतिहास
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CoopsDay (अंतर्राष्ट्रीय सहकारिता दिवस) की शुरुआत सन् 1923 में हुई थी।
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इसे संयुक्त राष्ट्र द्वारा आधिकारिक मान्यता वर्ष 1995 में मिली।
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यह दिवस हर वर्ष जुलाई के पहले शनिवार को मनाया जाता है।
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IYC 2025 की मेज़बानी ‘सहकारिता संवर्धन एवं उन्नति समिति (COPAC)’ कर रही है।
IYC 2025 की थीम:
“सहकारिताएँ एक बेहतर विश्व का निर्माण करती हैं”
(Cooperatives Build a Better World)
यह थीम इस बात को रेखांकित करती है कि कैसे सहकारी संस्थाएँ:
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समावेशी आर्थिक मॉडल को बढ़ावा देती हैं,
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सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) की प्राप्ति में योगदान देती हैं,
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और सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को दूर करने में सशक्त भूमिका निभाती हैं।
वैश्विक सहकारिता क्षेत्र की स्थिति:
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दुनिया की 12% से अधिक जनसंख्या किसी न किसी रूप में सहकारी संस्थाओं से जुड़ी है।
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विश्वभर में लगभग 30 लाख (3 मिलियन) सहकारी संस्थाएँ सक्रिय हैं।
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ये संस्थाएँ लगभग 280 मिलियन लोगों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से रोज़गार और कार्य के अवसर प्रदान करती हैं — जो कि वैश्विक कार्यबल का लगभग 10% है।
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अंतर्राष्ट्रीय सहकारी गठबंधन (ICA) दुनिया भर में 1 अरब से अधिक सहकारी सदस्यों का प्रतिनिधित्व करता है।
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राष्ट्रीय सहकारिता नीति 2025 की प्रमुख विशेषताएँ
राष्ट्रीय सहकारिता नीति 2025 भारत के सहकारी क्षेत्र को आधुनिक, समावेशी और वैश्विक प्रतिस्पर्धा योग्य बनाने की दिशा में एक दूरदर्शी पहल है। यह नीति ‘सहकार से समृद्धि’ के मंत्र को आधार बनाकर स्थानीय से वैश्विक स्तर तक सहकारी संस्थाओं के विकास का रोडमैप प्रस्तुत करती है।
1. दृष्टिकोण और उद्देश्य:
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नीति का उद्देश्य सहकारी संस्थाओं को सशक्त बनाना और उनकी पहुँच को ग्राम स्तर तक विस्तारित करना है।
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यह 2002 की नीति का स्थान लेती है और आगामी दो दशकों (2025–2045) तक सहकारिता क्षेत्र के लिए एक समग्र रणनीति तय करती है।
2. सरकारी योजनाओं का एकीकरण:
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नीति मौजूदा योजनाओं जैसे:
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डेयरी अवसंरचना विकास निधि (DIDF)
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प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना (PMMSY)
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राष्ट्रीय डेयरी विकास कार्यक्रम (NPDD)
के साथ तालमेल बैठाकर कार्य करेगी।
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अगले 5 वर्षों में 2 लाख नई बहुउद्देशीय प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ (M-PACS) स्थापित करने का लक्ष्य रखा गया है।
3. समावेशी विकास और ग्रामीण सशक्तिकरण:
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दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और युवाओं की भागीदारी बढ़ाने पर विशेष ज़ोर।
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सहकारिताओं के माध्यम से रोज़गार सृजन, आर्थिक भागीदारी और ग्रामीण विकास को बल।
4. विविधीकरण और सहकारी शिक्षा:
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नीति के अंतर्गत सहकारिताओं को 25 से अधिक क्षेत्रों में विस्तार के लिए प्रोत्साहन:
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डेयरी, मत्स्य पालन, खाद्यान्न खरीद, जैविक कृषि आदि।
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त्रिभुवन सहकारी विश्वविद्यालय के ज़रिए सहकारी शिक्षा, अनुसंधान और नेतृत्व विकास को बढ़ावा।
5. प्रौद्योगिकीय प्रगति और आधुनिकीकरण:
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नीति सहकारी संस्थाओं को डिजिटल, पारदर्शी और प्रतिस्पर्द्धी बनाने के लिए आधुनिकीकरण पर बल देती है।
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सहकारिताओं को ई-मार्केटिंग, डिजिटल भुगतान, डेटा प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में सक्षम बनाया जाएगा।
6. वैश्विक सहभागिता और निर्यात:
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राष्ट्रीय सहकारी निर्यात लिमिटेड (NCEL) की स्थापना के माध्यम से:
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चावल, गेहूँ जैसे उत्पादों का वैश्विक निर्यात।
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सहकारी समितियों को अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों तक पहुँच देने की योजना
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सहकारी समितियाँ क्या होती हैं?
परिचय: सहकारिता का मूल स्वरूप
सहकारी समिति एक स्वायत्त, लोकतांत्रिक और सदस्य-आधारित संगठन होती है, जिसमें व्यक्ति स्वेच्छा से शामिल होते हैं ताकि वे अपनी साझा आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओं को पूरा कर सकें। ये समितियाँ “एक सदस्य, एक मत” के सिद्धांत पर कार्य करती हैं, जिससे हर सदस्य को समान अधिकार प्राप्त होता है — भले ही उसने कितनी पूँजी लगाई हो।
भारत में सहकारी आंदोलन का इतिहास
भारत में सहकारिता की शुरुआत 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुई, जिसका उद्देश्य ग्रामीण ऋण और साहूकारी शोषण से निपटना था। इसके दो प्रमुख कानूनी कदम थे:
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सहकारी ऋण समितियाँ अधिनियम, 1904
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सहकारी समितियाँ अधिनियम, 1912
स्वतंत्रता के बाद सहकारिता को भारत के विकास मॉडल का अभिन्न अंग बनाया गया। इस दौरान दो प्रमुख संस्थाओं की स्थापना हुई:
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राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (NABARD)
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राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम (NCDC)
इन संस्थाओं ने सहकारी समितियों को वित्त, प्रशिक्षण और अवसंरचना में मदद प्रदान की।
सहकारी बैंकिंग और वित्तीय आयाम
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भारत में लगभग 1,400 शहरी सहकारी बैंक कार्यरत हैं।
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ये बैंक बैंकिंग विनियमन अधिनियम के तहत नियंत्रित होते हैं।
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ये बैंक लघु ऋण, कृषि वित्त और सूक्ष्म उद्यमों को समर्थन प्रदान करते हैं।
⚖️ संवैधानिक और कानूनी ढाँचा
97वाँ संविधान संशोधन (2011) के माध्यम से सहकारी समितियों को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
प्रमुख संवैधानिक प्रावधान:
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अनुच्छेद 19(1)(c) – सहकारी समितियों के गठन का मौलिक अधिकार सुनिश्चित करता है।
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अनुच्छेद 43B – राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत (DPSP) के रूप में सहकारिता को प्रोत्साहन देता है।
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भाग IXB (अनुच्छेद 243ZH – 243ZT) – सहकारी समितियों के लिए प्रशासनिक और संचालन संबंधी प्रावधान निर्धारित करता है।
प्रशासनिक ढाँचा:
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राज्य स्तरीय सहकारी समितियाँ – राज्य सूची के अंतर्गत आती हैं और संबंधित राज्य रजिस्ट्रार द्वारा शासित होती हैं।
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बहु-राज्य सहकारी समितियाँ (MSCS) – संघ सूची के अंतर्गत आती हैं और केंद्रीय रजिस्ट्रार द्वारा प्रशासित होती हैं।
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MSCS अधिनियम, 2002 – बहु-राज्य समितियों के लिए प्रमुख विधिक ढांचा है।
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MSCS संशोधन अधिनियम, 2023 – सहकारिता क्षेत्र में पारदर्शिता और सुशासन को मजबूत करता है।
सहकारिता मंत्रालय और संस्थागत विकास
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2021 में सहकारिता मंत्रालय की स्थापना की गई, जिससे इसे एक स्वतंत्र मंत्रालय का दर्जा मिला।
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इससे पहले यह कृषि, सहकारिता एवं किसान कल्याण मंत्रालय का हिस्सा था।
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यह मंत्रालय सहकारी समितियों के समन्वय, नियमन और सशक्तिकरण का कार्य करता है।
भारत में सहकारी समितियों की वर्तमान स्थिति
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भारत में कुल 8.42 लाख सहकारी समितियाँ सक्रिय हैं।
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इन समितियों के पास लगभग 29 करोड़ सदस्य हैं — जो वैश्विक स्तर पर कुल सहकारी सदस्यों का 27% है।
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IFFCO और Amul जैसी भारतीय संस्थाएँ दुनिया की शीर्ष 300 सहकारी समितियों में शामिल हैं।
क्षेत्रवार वितरण और महत्त्वपूर्ण योगदान
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महाराष्ट्र भारत में सहकारी समितियों की संख्या में सबसे आगे है — 25% से अधिक समितियाँ यहीं स्थित हैं।
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इसके बाद गुजरात, तेलंगाना, मध्य प्रदेश और कर्नाटक प्रमुख राज्यों में शामिल हैं।
ऐतिहासिक योगदान:
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त्रिभुवनदास के. पटेल ने गाँव-स्तरीय दुग्ध सहकारी समितियों को संगठित किया और अमूल की नींव रखी।
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डॉ. वर्गीज़ कुरियन, जिन्हें भारत की श्वेत क्रांति का जनक कहा जाता है, ने अमूल को राष्ट्रीय स्तर पर सफल बनाया और भारत को विश्व का शीर्ष दुग्ध उत्पादक देश बनाने में अहम भूमिका निभाई।
भारत में सहकारी क्षेत्र: प्रमुख चुनौतियाँ और अवसर
राष्ट्रीय सहकारिता नीति 2025 के तहत भारत सहकारी आंदोलन को पुनर्जीवित करने की दिशा में ठोस कदम उठा रहा है। लेकिन इस क्षेत्र के समक्ष कुछ जमीनी चुनौतियाँ भी हैं, जिनका समाधान निकालना आवश्यक है, ताकि इसके अवसरों का पूरा लाभ उठाया जा सके।
प्रमुख चुनौतियाँ
1. 🏗️ कमजोर अवसंरचना
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उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में सहकारी नेटवर्क का अभी भी सीमित विस्तार है।
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भौगोलिक, तार्किक और वित्तीय बाधाएँ इन क्षेत्रों में सहकारी पहुँच को विस्तार देने में अवरोध पैदा करती हैं।
2. सीमित सदस्य भागीदारी
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हाशिए पर रहने वाले समुदायों (जैसे महिलाएँ, अनुसूचित जातियाँ/जनजातियाँ) की सहभागिता अभी भी कम है।
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जागरूकता की कमी के कारण लोकतांत्रिक ढाँचा निष्क्रिय हो जाता है।
3. वित्तीय बाधाएँ
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कई सहकारी संस्थाएँ संपार्श्विक, क्रेडिट इतिहास या उचित दस्तावेजों के अभाव में बैंक ऋण से वंचित रह जाती हैं।
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स्व-वित्त पोषण या दीर्घकालिक क्रेडिट व्यवस्था का अभाव उन्हें सीमित बनाता है।
4. कौशल और नेतृत्व की कमी
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प्रशिक्षित मानव संसाधन, प्रबंधन क्षमता और तकनीकी विशेषज्ञता का अभाव संस्थाओं के प्रभावी संचालन में रुकावट बनता है।
5. तकनीकी एकीकरण की धीमी गति
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अधिकांश ग्रामीण सहकारी समितियाँ अभी भी मैनुअल प्रक्रिया पर निर्भर हैं।
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डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म, ई-ऑडिट, और डेटा-आधारित निर्णयों को अपनाने में चुनौतियाँ बनी हुई हैं।
उभरते अवसर
1. 💪 आर्थिक सशक्तीकरण का नया युग
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2 लाख नई M-PACS की स्थापना से कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नया जीवन मिलेगा।
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डेयरी, मत्स्य पालन, बागवानी जैसे क्षेत्रों में बहु-आयामी अवसरों की संभावना।
2. वैश्विक स्तर पर भारतीय सहकारिता की पहचान
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राष्ट्रीय सहकारी निर्यात लिमिटेड (NCEL) के गठन से सहकारी उत्पादों को वैश्विक बाज़ार में पहुँच मिलेगी।
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निर्यात से विदेशी मुद्रा आय और ग्लोबल ब्रांडिंग को बल मिलेगा।
3. रोज़गार सृजन
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कृषि, डेयरी, मत्स्य पालन जैसे श्रम-प्रधान क्षेत्रों में लाखों नए रोज़गार उत्पन्न हो सकते हैं।
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ग्रामीण युवाओं को स्थानीय स्तर पर जीविका के अवसर उपलब्ध होंगे।
4. सुशासन और पारदर्शिता में सुधार
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डिजिटल ऑडिट, ई-बुककीपिंग, और सदस्य-प्रथम मॉडल से सहकारी संस्थाओं की पारदर्शिता और विश्वसनीयता बढ़ेगी।
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नियमित लेखा परीक्षण और सदस्यों की सक्रिय भागीदारी से जवाबदेही सुनिश्चित होगी।
निष्कर्ष
सहकारी समितियाँ भारत के सामाजिक-आर्थिक न्याय और समावेशी विकास का सशक्त माध्यम हैं। वे न केवल किसानों, महिलाओं और ग्रामीण समुदायों को आर्थिक अवसर प्रदान करती हैं, बल्कि लोकतांत्रिक भागीदारी और स्थानीय आत्मनिर्भरता को भी बढ़ावा देती हैं।
राष्ट्रीय सहकारिता नीति 2025 के अंतर्गत भारत “सहकार से समृद्धि” के अपने दृष्टिकोण को साकार करने की दिशा में अग्रसर है — एक ऐसा भारत जहाँ सहकारी आंदोलन सतत विकास, रोज़गार, और समृद्ध समुदायों की नींव रखता है।
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